Thursday, June 24, 2010

स्वाभिमानी बनें

स्वाभिमानी बनें स्वाभिमान और अभिमान दोनों समोच्चरित शब्द हैं और उनके अर्थ भी लगभग समानार्थी जैसे ही लगते हैं। लेकिन ये दोनों शब्द परस्पर एक दूसरे से भिन्न ही नहीं एकदम विपरीतार्थी हैं। स्वाभिमान आत्मगौरव, आत्मसम्मान के लिए प्रयुक्त होता है। पौरुषवाची शब्द है जो हमें जगाता है, प्रेरित करता है और हमें कर्तव्य के प्रति आगे बढ़ने के लिए ललकारता है। स्वाभिमान हमारे अपने विश्वास को जाग्रत करता है। हमारे अपने आत्मबोध को पुष्ट करता है और कितनी ही कठिन डगर हो स्वाभिमान हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करता है। हमें जीवन मूल्यों के प्रति, अपने देश के प्रति, अपनी संस्कृति, समाज के प्रति स्वाभिमानी बनने की प्रेरणा देता है। मानव तीन ऋणों को लेकर जन्मता है। पहला-पितृ ऋण। हमारे जन्मदाता ने हमारा जो शरीर प्रदान किया है कि हम अपने ही रूप स्वरूप की संतति देकर पितृ-ऋण से मुक्त होकर स्वाभिमान पूर्वक सामाजिक संरचना के चक्र को पूरा करने में स्वाभिमान रखें। दूसरा ऋण है-सामाजिक ऋण। हम जिस समाज में हैं उस समाज को अपने कौशल और विवेक-बुद्धि से समाजसेवा करने में स्वाभिमान की पवित्र भावना रखें। हमारे ऊपर तीसरा ऋण है- राष्ट्र ऋण। हम जिस राष्ट्र में रहकर उसके अन्न-जल से पोषण प्राप्त करके अपना, अपने परिवार तथा अपने समाज के विकास में सहयोगी बनते हैं, उसके स्वराष्ट्राभिमान को जाग्रत रखना चाहिए। इस राष्ट्र पर किसी भी प्रकार की संकट आए तो राष्ट्र को संकट से मुक्त कराने के लिए अनेक राष्ट्रभक्तों ने स्वराष्ट्राभिमान के वशीभूत होकर अपने को उत्सर्ग कर दिया। ऐसा स्वाभिमान जो हमारे विवेक को प्रकाशित करता है। यह स्वाभिमान ही है जो हमें हमारी कठिन परिस्थितियों और विपन्नावस्था में भी डिगने नहीं देता। स्वाभिमान हमारी आन-बान-शान का प्रतीक होता है। जबकि अभिमान हमें अहं से ग्रसित करता है। मिथ्या ज्ञान हमें घमंड, गर्व तथा अपने को श्रेष्ठ समझकर झूठा व दंभी बनाता है, अज्ञान के अंधेरे घेरों में ढकेलता है। अभिमान मानव का, समाज का व राष्ट्र का शत्रु है। अस्तु हमें अभिमानी न बनकर स्वाभिमानी बनना चाहिए। अपने राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान रखकर इस देश को उन्नतशील बनाना और स्वयं विवेकशील बनना चाहिए।

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